Kitna Kaha dil se ….ki tujhe yaad na kare;
Kehta hai jab ja rahi ho jaan …to kaise koi fariyad na kare;
Samjha ke bhi dekh chuke hum…ab tum hi sambhalo;
Aakar milo aise ki fir bichhde na hum…aur dil tadap kar koi murad na kare…
Saturday, January 30, 2010
Thursday, November 19, 2009
feel if you can !!!
Me bhi tanha hoon yahan ;
Tu bhi tanha hai kahin;
Me bhi kuch Kehta nahi;
Tu bhi chup si hai khadi;
To fir kyun ye khamoshiyan, kyun sason me sailab hai;
Sajde me tha pehle kabhi par dil ki ab aagaz hai;
Me tera kab se ho chuka; kya chup rehna tera andaz hai
---"मनीष"
Tu bhi tanha hai kahin;
Me bhi kuch Kehta nahi;
Tu bhi chup si hai khadi;
To fir kyun ye khamoshiyan, kyun sason me sailab hai;
Sajde me tha pehle kabhi par dil ki ab aagaz hai;
Me tera kab se ho chuka; kya chup rehna tera andaz hai
---"मनीष"
Tuesday, November 3, 2009
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं
आज फ़िर सब कुछ छोड़ आया हूँ मैं ,
रंगों में नफरत घोल आया हूँ मैं ,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
खता किसकी थी, यह तो पता नहीं,
पर उस पते पर खता अपनी छोड़ आया हूँ मैं ,
रोकती थी निगाह उनकी हमें भी,
बंद लब भी पुकारते थे,
समय के फेर में फ़िर गया सब कुछ,
खुशियों का गला घोंट आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
जानता हूँ न मिलेगा दोस्त तुम -सा
और न ही हम- सी तुम्हे दोस्ती मिलेगी,
फ़िर भी सब कुछ मिटा दिया मैंने
ज्यूँ सफ़ेद कागज पर रंग उडेल आया हूँ मैं,
छोड़ दिया साथ मैंने अपनों का,
उनसे भी मुंह मोड़ आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
चाहता हूँ जोड़ना सब कुछ,
पर मुझसे हर चीज़ टूट जाती है,
कभी-कभी किस्मत भी अपनी यारों हमसे रूठ जाती है,
चाहता हूँ सब को संजों के रखना,
पर क्यूँ हर मोती मुझसे छिन जाता है,
तोड़ दी ख़ुद आज माला मैंने,
फ़िर हर मोती बिखरा आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
रंगों में नफरत घोल आया हूँ मैं ,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
खता किसकी थी, यह तो पता नहीं,
पर उस पते पर खता अपनी छोड़ आया हूँ मैं ,
रोकती थी निगाह उनकी हमें भी,
बंद लब भी पुकारते थे,
समय के फेर में फ़िर गया सब कुछ,
खुशियों का गला घोंट आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
जानता हूँ न मिलेगा दोस्त तुम -सा
और न ही हम- सी तुम्हे दोस्ती मिलेगी,
फ़िर भी सब कुछ मिटा दिया मैंने
ज्यूँ सफ़ेद कागज पर रंग उडेल आया हूँ मैं,
छोड़ दिया साथ मैंने अपनों का,
उनसे भी मुंह मोड़ आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
चाहता हूँ जोड़ना सब कुछ,
पर मुझसे हर चीज़ टूट जाती है,
कभी-कभी किस्मत भी अपनी यारों हमसे रूठ जाती है,
चाहता हूँ सब को संजों के रखना,
पर क्यूँ हर मोती मुझसे छिन जाता है,
तोड़ दी ख़ुद आज माला मैंने,
फ़िर हर मोती बिखरा आया हूँ मैं,
बहते हैं अश्क पर क्या करूँ,
फ़िर एक रिश्ता तोड़ आया हूँ मैं।
Friday, October 30, 2009
अनदेखा पहलु
इस बार हम लोग नवरात्री के अवसर पर झाकियां देखने के लिए गए । पूरा शहर जगमगा रहा था । हर कहीं लाल-पीले-हरे बल्ब टिमटिमा रहे थे। पूरे शहर में एक से बढ़कर एक झाकियां रखी हुई थी। लोग अच्छी अच्छी पोशाकों में घूम रहे थे । कहीं गरबा चल रहा था तो कहीं रात्रि जागरण में लोग मशगुल थे। हम भी अपनी मस्ती में घूम रहे थे , जो भी खाने का दिल करता था खा रहे थे , जो भी खरीदने का दिल करता खरीद रहे थे ।
कुछ दूर बढे तो हम लोग एक झांकी के पास आकर रुके। वह एक चलती फिरती झांकी थी और वहां किसी पौराणिक घटना का मंचन हो रहा था । रात के करीब एक बज चुके थे फ़िर भी झांकी के पास लोगों की कमी न थी । सभी बड़े आनंद से वह मंचन देख रहे थे, पर में वो देख रहा था जो शायद कोई नहीं देख रहा था या फ़िर देखना नहीं चाह रहा था।
वह द्रश्य भारत के "फील-गुड" फैक्टर को नंगा कर रहा था। वह द्रश्य था मुफलिसी का , किसी की लाचारी का, किसी की गरीबी का।
झांकी के बगल में ही एक औरत ( जो की एक छोटे से बचे की माँ भी थी ) लकड़ी की तलवार और त्रिशूल बेच रही थी। बच्चा सोना चाह रहा था पर लाउड-स्पीकर का शोर शायद उसे सोने न दे रहा था, माँ के आंखों में भी नींद थी पर कुछ पैसे कमाने की चाह ने नींद को पलकों से दूर ही कर रखा था । माँ की आंखों में मज़बूरी भी साफ़ झलक रही थी, एक ओर तो वो झांकी के पास बनी रहना चाहती थी ताकि बिक्री हो सके वही दूसरी ओर झांकी के पास का कर्ण भेदी शोर बच्चे की नींद में खलल डाल रहा था जो की एक माँ को नागवार था। फ़िर आख़िर उसने गरीबी के आगे घुटने टेक दिए ओर वहीँ रुकने का फ़ैसला किया।
में उस औरत की मदद, सिवाय कुछ खिलोने खरीदने के, न कर सका परन्तु उसका दर्द जरुर महसूस कर रहा था। यदि लोग मूर्त प्रतिमा पर व्यर्थ खर्च न कर के इन जैसे (गरीब) सजीव प्रतिमा पर यही पैसा खर्च करे तो शायद देवी दुर्गा वाकई हमसे प्रसन्न हो जाए ओर नवरात्र पर्व की सार्थकता सिद्ध हो जाए।
इतने में ही मंचन समाप्त हो गया , लोगो ने ताली बजाई ओर "अनदेखे " पहलु को अनदेखा ही छोड़कर अपनी मस्ती में फ़िर मशगुल हो गए।
कुछ दूर बढे तो हम लोग एक झांकी के पास आकर रुके। वह एक चलती फिरती झांकी थी और वहां किसी पौराणिक घटना का मंचन हो रहा था । रात के करीब एक बज चुके थे फ़िर भी झांकी के पास लोगों की कमी न थी । सभी बड़े आनंद से वह मंचन देख रहे थे, पर में वो देख रहा था जो शायद कोई नहीं देख रहा था या फ़िर देखना नहीं चाह रहा था।
वह द्रश्य भारत के "फील-गुड" फैक्टर को नंगा कर रहा था। वह द्रश्य था मुफलिसी का , किसी की लाचारी का, किसी की गरीबी का।
झांकी के बगल में ही एक औरत ( जो की एक छोटे से बचे की माँ भी थी ) लकड़ी की तलवार और त्रिशूल बेच रही थी। बच्चा सोना चाह रहा था पर लाउड-स्पीकर का शोर शायद उसे सोने न दे रहा था, माँ के आंखों में भी नींद थी पर कुछ पैसे कमाने की चाह ने नींद को पलकों से दूर ही कर रखा था । माँ की आंखों में मज़बूरी भी साफ़ झलक रही थी, एक ओर तो वो झांकी के पास बनी रहना चाहती थी ताकि बिक्री हो सके वही दूसरी ओर झांकी के पास का कर्ण भेदी शोर बच्चे की नींद में खलल डाल रहा था जो की एक माँ को नागवार था। फ़िर आख़िर उसने गरीबी के आगे घुटने टेक दिए ओर वहीँ रुकने का फ़ैसला किया।
में उस औरत की मदद, सिवाय कुछ खिलोने खरीदने के, न कर सका परन्तु उसका दर्द जरुर महसूस कर रहा था। यदि लोग मूर्त प्रतिमा पर व्यर्थ खर्च न कर के इन जैसे (गरीब) सजीव प्रतिमा पर यही पैसा खर्च करे तो शायद देवी दुर्गा वाकई हमसे प्रसन्न हो जाए ओर नवरात्र पर्व की सार्थकता सिद्ध हो जाए।
इतने में ही मंचन समाप्त हो गया , लोगो ने ताली बजाई ओर "अनदेखे " पहलु को अनदेखा ही छोड़कर अपनी मस्ती में फ़िर मशगुल हो गए।
Wednesday, October 28, 2009
Its all about money...
" You can't buy everything from money"...idealist may use these deceiving word to deceive themselves...But practicality is somewhat different...complete unique, shocking, naked truth.
We can't spend our single minute without being thinking about money...I would rather say if we are loving our parents that's because of our deep inner desire for money which they can fulfill...Yes, very true, you can blame me ... you are free to say me insane... but before that look inside your own heart , talk to your own soul...Have you ever done anything in your life which is by no mean link with the money and desire for money?...candid answer to this may reveal the naked truth of which I am talking about...
Somebody asked me,"what you want in your life?" I said, comfort and peace.
But is that really true? No, that was a false projection of what I really want in my life. Indeed I don't want any comfort...I want money !!! Ya that's true, I can prove it, in a minute...If i really ever wanted comfort in my life then I should have to be at my home with my parents at this time...then I should have to be working in some small company at my hometown so that I can earn enough money for my family to buy sufficient bread and butter...then I should have to be father of two kids by this time...then I should have to be chatting with my wife while walking along the dimly lit streets in the breezy spring season...
Comfort was there, if I really ever wanted comfort in my life...
I came out from my house to pursue engineering...after that joined MNC in delhi...when I saw no further sufficient pay hike in salary...I burned the mid night oil to crack CAT ...I entered in IIM Bangalore...I am reading day and night to get good job ...Good job because for good money...and good money to have all the comfort in life...
Ah! jesus...to have the comfort in my life I myself made my life uncomfortable...
Have I ever asked why?
Because I wanted money in my life...not comfort...
I have trapped myself in the never ending vicious circle of uncomfort...
this is true for every one...but I hope you must be an exception.
We can't spend our single minute without being thinking about money...I would rather say if we are loving our parents that's because of our deep inner desire for money which they can fulfill...Yes, very true, you can blame me ... you are free to say me insane... but before that look inside your own heart , talk to your own soul...Have you ever done anything in your life which is by no mean link with the money and desire for money?...candid answer to this may reveal the naked truth of which I am talking about...
Somebody asked me,"what you want in your life?" I said, comfort and peace.
But is that really true? No, that was a false projection of what I really want in my life. Indeed I don't want any comfort...I want money !!! Ya that's true, I can prove it, in a minute...If i really ever wanted comfort in my life then I should have to be at my home with my parents at this time...then I should have to be working in some small company at my hometown so that I can earn enough money for my family to buy sufficient bread and butter...then I should have to be father of two kids by this time...then I should have to be chatting with my wife while walking along the dimly lit streets in the breezy spring season...
Comfort was there, if I really ever wanted comfort in my life...
I came out from my house to pursue engineering...after that joined MNC in delhi...when I saw no further sufficient pay hike in salary...I burned the mid night oil to crack CAT ...I entered in IIM Bangalore...I am reading day and night to get good job ...Good job because for good money...and good money to have all the comfort in life...
Ah! jesus...to have the comfort in my life I myself made my life uncomfortable...
Have I ever asked why?
Because I wanted money in my life...not comfort...
I have trapped myself in the never ending vicious circle of uncomfort...
this is true for every one...but I hope you must be an exception.
"Tumhe Humse hi Mohabbat Rahi Hogi"
Jubaan par aa gaya mera naam kyun,
kuch na kuch to baat rahi hogi,
aise hi nahin hoti ye aankhien nam--2
Ki tumne meri yaad kari hogi....
Teri hasi sunta hoon yahan par mein,
wo teri chudiyon ki khanak bechain karti hai,
teri pajeb chanak rahi hai yahin kahin
tujhe har pal me mehsus karta hoon,
hum to kahenge ibadat isko--2
jamane ki najron me ye aashqui rahi hogi...
Hoth na thirke ho bhale hi,
aankhon se humne sab keh diya ,
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi--2
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
Hai mukaddar shalabh ka,
shama me jal kar khak ho jaye,
mita de khud ko pyar ke liye,
pyar me apna naam kar jaye,
pagalpan kaho sayad ise tum--2
mere liye diwangi rahi hogi...
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
Bhool aaya tha tumhe,
har cheez se nata toda tha,
teri yaad tak dafan kar di thi seene me kahin,
tujhe bhulne ke liye me khud ko bhi bhula tha,
fir aati hai khwabon me kyun,
kyun tera didar hota hai,
tujhe bhul na paya me --2
sayad dil me mere kahin,
teri thodi yaad rahi hogi...
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi--2
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
kuch na kuch to baat rahi hogi,
aise hi nahin hoti ye aankhien nam--2
Ki tumne meri yaad kari hogi....
Teri hasi sunta hoon yahan par mein,
wo teri chudiyon ki khanak bechain karti hai,
teri pajeb chanak rahi hai yahin kahin
tujhe har pal me mehsus karta hoon,
hum to kahenge ibadat isko--2
jamane ki najron me ye aashqui rahi hogi...
Hoth na thirke ho bhale hi,
aankhon se humne sab keh diya ,
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi--2
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
Hai mukaddar shalabh ka,
shama me jal kar khak ho jaye,
mita de khud ko pyar ke liye,
pyar me apna naam kar jaye,
pagalpan kaho sayad ise tum--2
mere liye diwangi rahi hogi...
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
Bhool aaya tha tumhe,
har cheez se nata toda tha,
teri yaad tak dafan kar di thi seene me kahin,
tujhe bhulne ke liye me khud ko bhi bhula tha,
fir aati hai khwabon me kyun,
kyun tera didar hota hai,
tujhe bhul na paya me --2
sayad dil me mere kahin,
teri thodi yaad rahi hogi...
bhale ijhar na kiya ho tumne kabhi--2
janta hoon,
"Tumhe humse hi mohabbat rahi hogi"...
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