इस बार हम लोग नवरात्री के अवसर पर झाकियां देखने के लिए गए । पूरा शहर जगमगा रहा था । हर कहीं लाल-पीले-हरे बल्ब टिमटिमा रहे थे। पूरे शहर में एक से बढ़कर एक झाकियां रखी हुई थी। लोग अच्छी अच्छी पोशाकों में घूम रहे थे । कहीं गरबा चल रहा था तो कहीं रात्रि जागरण में लोग मशगुल थे। हम भी अपनी मस्ती में घूम रहे थे , जो भी खाने का दिल करता था खा रहे थे , जो भी खरीदने का दिल करता खरीद रहे थे ।
कुछ दूर बढे तो हम लोग एक झांकी के पास आकर रुके। वह एक चलती फिरती झांकी थी और वहां किसी पौराणिक घटना का मंचन हो रहा था । रात के करीब एक बज चुके थे फ़िर भी झांकी के पास लोगों की कमी न थी । सभी बड़े आनंद से वह मंचन देख रहे थे, पर में वो देख रहा था जो शायद कोई नहीं देख रहा था या फ़िर देखना नहीं चाह रहा था।
वह द्रश्य भारत के "फील-गुड" फैक्टर को नंगा कर रहा था। वह द्रश्य था मुफलिसी का , किसी की लाचारी का, किसी की गरीबी का।
झांकी के बगल में ही एक औरत ( जो की एक छोटे से बचे की माँ भी थी ) लकड़ी की तलवार और त्रिशूल बेच रही थी। बच्चा सोना चाह रहा था पर लाउड-स्पीकर का शोर शायद उसे सोने न दे रहा था, माँ के आंखों में भी नींद थी पर कुछ पैसे कमाने की चाह ने नींद को पलकों से दूर ही कर रखा था । माँ की आंखों में मज़बूरी भी साफ़ झलक रही थी, एक ओर तो वो झांकी के पास बनी रहना चाहती थी ताकि बिक्री हो सके वही दूसरी ओर झांकी के पास का कर्ण भेदी शोर बच्चे की नींद में खलल डाल रहा था जो की एक माँ को नागवार था। फ़िर आख़िर उसने गरीबी के आगे घुटने टेक दिए ओर वहीँ रुकने का फ़ैसला किया।
में उस औरत की मदद, सिवाय कुछ खिलोने खरीदने के, न कर सका परन्तु उसका दर्द जरुर महसूस कर रहा था। यदि लोग मूर्त प्रतिमा पर व्यर्थ खर्च न कर के इन जैसे (गरीब) सजीव प्रतिमा पर यही पैसा खर्च करे तो शायद देवी दुर्गा वाकई हमसे प्रसन्न हो जाए ओर नवरात्र पर्व की सार्थकता सिद्ध हो जाए।
इतने में ही मंचन समाप्त हो गया , लोगो ने ताली बजाई ओर "अनदेखे " पहलु को अनदेखा ही छोड़कर अपनी मस्ती में फ़िर मशगुल हो गए।
Friday, October 30, 2009
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